क़दमों पे डर के रख दिया सर ताकि उठ न जाएँ
नाराज़ दिल-लगी में जो वो इक ज़रा हुए
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ये साबित है कि मुतलक़ का तअय्युन हो नहीं सकता
तेज़ी-ए-बादा कुजा तल्ख़ी-ए-गुफ़्तार कुजा
देख लो तुम ख़ू-ए-आतिश ऐ क़मर शीशे में है
शब को नाला जो मिरा ता-ब-फ़लक जाता है
भला हो जिस काम में किसी का तो उस में वक़्फ़ा न कीजिएगा
जबीन पर क्यूँ शिकन है ऐ जान मुँह है ग़ुस्से से लाल कैसा
दश्त-ओ-सहरा में हसीं फिरते हैं घबराए हुए
यूँ आती हैं अब मेरे तनफ़्फ़ुस की सदाएँ
सब में हूँ फिर किसी से सरोकार भी नहीं
थोड़ी थोड़ी राह में पी लेंगे गर कम है तो क्या
लिख कर मुक़त्तआ'त में दीं उन को अर्ज़ियाँ
है नौ-जवानी में ज़ोफ़-ए-पीरी बदन में रअशा कमर में ख़म है