मय-कदा है शैख़ साहब ये कोई मस्जिद नहीं
आप शायद आए हैं रिंदों के बहकाए हुए
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बुतान-ए-सर्व-क़ामत की मोहब्बत में न फल पाया
शराब पी जान तन में आई अलम से था दिल कबाब कैसा
उस से क्या छुप सके बनाई बात
हुए ख़ल्क़ जब से जहाँ में हम हवस-ए-नज़ारा-ए-यार है
लैस हो कर जो मिरा तर्क-ए-जफ़ा-कार चले
फ़रियाद भी मैं कर न सका बे-ख़बरी से
असल साबित है वही शरअ' का इक पर्दा है
ख़ुदा करे कहीं मय-ख़ाने की तरफ़ न मुड़े
थोड़ी थोड़ी राह में पी लेंगे गर कम है तो क्या
कसी हैं भब्तियाँ मस्जिद में रीश-ए-वाइज़ पर
रिंदों को वाज़ पंद न कर फ़स्ल-ए-गुल में शैख़
है आठ पहर तू जल्वा-नुमा तिमसाल-ए-नज़र है परतव-ए-रुख़