ख़ुदा करे कहीं मय-ख़ाने की तरफ़ न मुड़े
वो मोहतसिब की सवारी फ़रेब-ए-राह रुकी
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चाँदनी छुपती है तकयों के तले आँखों में ख़्वाब
बढ़ा दी इक नज़र में तू ने क्या तौक़ीर पत्थर की
गुलों का दौर है बुलबुल मज़े बहार में लूट
है आठ पहर तू जल्वा-नुमा तिमसाल-ए-नज़र है परतव-ए-रुख़
क़दमों पे डर के रख दिया सर ताकि उठ न जाएँ
चल नहीं सकते वहाँ ज़ेहन-ए-रसा के जोड़-तोड़
फ़रियाद भी मैं कर न सका बे-ख़बरी से
मेहर-ओ-उल्फ़त से मआल-ए-तहज़ीब
जब कि वहदत है बाइस-ए-कसरत
तेरा कूचा है वो ऐ बुत कि हज़ारों ज़ाहिद
मय-कदे को जा के देख आऊँ ये हसरत दिल में है
बना के आईना-ए-तसव्वुर जहाँ दिल-ए-दाग़-दार देखा