करो बातें हटाओ आइना बस बन चुके गेसू
इन्हीं झगड़ों ही में उस दिन भी कितनी रात आई थी
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फ़िराक़ में दम उलझ रहा है ख़याल-ए-गेसू में जांकनी है
जब कि वहदत है बाइस-ए-कसरत
ग़ुर्बत बस अब तरीक़-ए-मोहब्बत को क़त्अ कर
भला हो जिस काम में किसी का तो उस में वक़्फ़ा न कीजिएगा
वो उट्ठे हैं तेवर बदलते हुए
ज़बाँ पर तिरा नाम जब आ गया
जबीन पर क्यूँ शिकन है ऐ जान मुँह है ग़ुस्से से लाल कैसा
बुतान-ए-सर्व-क़ामत की मोहब्बत में न फल पाया
दाग़-ए-दिल हैं ग़ैरत-ए-सद-लाला-ज़ार अब के बरस
हज़रत-ए-वाइज़ न ऐसा वक़्त हाथ आएगा फिर
मेहर-ओ-उल्फ़त से मआल-ए-तहज़ीब
यूँ आती हैं अब मेरे तनफ़्फ़ुस की सदाएँ