जो ले लेते हो यूँ हर एक का दिल बातों बातों में
बताओ सच ये चालाकी तुम्हें किस ने सिखाई थी
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ये साबित है कि मुतलक़ का तअय्युन हो नहीं सकता
क्या हुआ वीराँ किया गर मोहतसिब ने मय-कदा
बना के आईना-ए-तसव्वुर जहाँ दिल-ए-दाग़-दार देखा
लिख कर मुक़त्तआ'त में दीं उन को अर्ज़ियाँ
है आठ पहर तू जल्वा-नुमा तिमसाल-ए-नज़र है परतव-ए-रुख़
मय-कदे को जा के देख आऊँ ये हसरत दिल में है
रोना इन का काम है हर दम जल जल कर मर जाना भी
मय-कदा है शैख़ साहब ये कोई मस्जिद नहीं
हज़रत-ए-वाइज़ न ऐसा वक़्त हाथ आएगा फिर
फ़स्ल-ए-गुल आई उठा अब्र चली सर्द हुआ
क़त्अ होता रहे इस तरह बयान-ए-वाइज़