हज़रत-ए-वाइज़ न ऐसा वक़्त हाथ आएगा फिर
सब हैं बे-ख़ुद तुम भी पी लो कुछ अगर शीशे में है
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बुतान-ए-सर्व-क़ामत की मोहब्बत में न फल पाया
नासेह ये वा'ज़-ओ-पंद है बेकार जाएगा
करो बातें हटाओ आइना बस बन चुके गेसू
ये साबित है कि मुतलक़ का तअय्युन हो नहीं सकता
किसी सूरत से हुई कम न हमारी तशवीश
जब कि वहदत है बाइस-ए-कसरत
चाँदनी छुपती है तकयों के तले आँखों में ख़्वाब
रिंदों को वाज़ पंद न कर फ़स्ल-ए-गुल में शैख़
मेहर-ओ-उल्फ़त से मआल-ए-तहज़ीब
चल नहीं सकते वहाँ ज़ेहन-ए-रसा के जोड़-तोड़
है नौ-जवानी में ज़ोफ़-ए-पीरी बदन में रअशा कमर में ख़म है
बना के आईना-ए-तसव्वुर जहाँ दिल-ए-दाग़-दार देखा