फ़स्ल-ए-गुल आई उठा अब्र चली सर्द हुआ
सू-ए-मय-ख़ाना अकड़ते हुए मय-ख़्वार चले
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पिला साक़ी मय-ए-गुल-रंग फिर काली घटा आई
शब कि मुतरिब था शराब-ए-नाब थी पैमाना था
दाग़-ए-दिल हैं ग़ैरत-ए-सद-लाला-ज़ार अब के बरस
मोहतसिब तू ने किया गर जाम-ए-सहबा पाश पाश
गुलों का दौर है बुलबुल मज़े बहार में लूट
जब कि वहदत है बाइस-ए-कसरत
बुतान-ए-सर्व-क़ामत की मोहब्बत में न फल पाया
चल नहीं सकते वहाँ ज़ेहन-ए-रसा के जोड़-तोड़
रोना इन का काम है हर दम जल जल कर मर जाना भी
ग़ुर्बत बस अब तरीक़-ए-मोहब्बत को क़त्अ कर
बरहमन शैख़ को कर दे निगाह-ए-नाज़ उस बुत की
फ़लक की गर्दिशें ऐसी नहीं जिन में क़दम ठहरे