बहुत दिनों में वो आए हैं वस्ल की शब है
मोअज़्ज़िन आज न यारब उठे अज़ाँ के लिए
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शब को नाला जो मिरा ता-ब-फ़लक जाता है
रोना इन का काम है हर दम जल जल कर मर जाना भी
गुलों का दौर है बुलबुल मज़े बहार में लूट
असल साबित है वही शरअ' का इक पर्दा है
अक़्ल पर पत्थर पड़े उल्फ़त में दीवाना हुआ
बना के आईना-ए-तसव्वुर जहाँ दिल-ए-दाग़-दार देखा
शराब पी जान तन में आई अलम से था दिल कबाब कैसा
कसी हैं भब्तियाँ मस्जिद में रीश-ए-वाइज़ पर
शब-ए-फ़ुर्क़त है ठहरते नहीं शोले दिल में
जा सके न मस्जिद तक जम्अ' थे बहुत ज़ाहिद
कोई बात ऐसी आज ऐ मेरी गुल-रुख़्सार बन जाए