सब में हूँ फिर किसी से सरोकार भी नहीं
सब में हूँ फिर किसी से सरोकार भी नहीं
ग़ाफ़िल अगर नहीं हूँ तो होश्यार भी नहीं
क़ीमत अगर वो देते हैं तकरार भी नहीं
कुछ हम को दिल के देने में इंकार भी नहीं
निस्बत है जिस्म ओ रूह की अल्लाह-रे इत्तिहाद
सुब्हा अगर नहीं है तो ज़ुन्नार भी नहीं
बैठा हूँ उस की याद में भूला हूँ ग़ैर को
ज़ाहिद अगर नहीं हूँ रिया-कार भी नहीं
जाएँ वो क़त्ल-ए-ग़ैर को हम रश्क से मरें
ऐसी तो अपनी जान से बेज़ार भी नहीं
आना हो आओ वर्ना ये कह दो न आएँगे
सुन लो ये दो ही बातें हैं तूमार भी नहीं
सौदा तमाम हो गया बाज़ार उठ गया
वो दिल भी अब नहीं वो ख़रीदार भी नहीं
तर्ज़-ए-जफ़ा भी भूल गई क्या वफ़ा के साथ
दिल-दार गर नहीं हो दिल-आज़ार भी नहीं
लेंगे हज़ार दर से पलट कर दर-ए-मुराद
मुनइम न दें तो क्या तिरी सरकार भी नहीं
भेजेंगे हस्ब-ए-हाल उन्हें गो न लिख सकें
क्या दामन और दीदा-ए-ख़ूँ-बार भी नहीं
बुलबुल चमन को देख ख़िज़ाँ के सितम को देख
गुल का तो ज़िक्र क्या है कहीं ख़ार भी नहीं
आज़ाद हैं शराब के आदी नहीं 'हबीब'
अहबाब गर पिलाएँ तो इंकार भी नहीं
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