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मेहर-ओ-उल्फ़त से मआल-ए-तहज़ीब - हबीब मूसवी कविता - Darsaal

मेहर-ओ-उल्फ़त से मआल-ए-तहज़ीब

मेहर-ओ-उल्फ़त से मआल-ए-तहज़ीब

ख़ाकसारी है कमाल-ए-तहज़ीब

है वो आराइश-ए-हुस्न-ए-बातिन

जिस को कहते हैं जमाल-ए-तहज़ीब

कम नहीं मर्दुमक-ए-चश्म से कुछ

रुख़-ए-इंसान पे ख़ाल-ए-तहज़ीब

आज-कल हम में अगर सच पूछो

शक्ल अन्क़ा है मिसाल-ए-तहज़ीब

कभी होता नहीं बद-वज़अ' का ख़ौफ़

है अजब जाह-ओ-जलाल-ए-तहज़ीब

रुख़ पे करता है मतानत पैदा

दिल में आते ही ख़याल-ए-तहज़ीब

अपने मतलब का जहाँ कुछ हो लगाव

नहीं रहता है ख़याल-ए-तहज़ीब

क़ौम का अपने न घटता वो उरूज

हो न जाता जो ज़वाल-ए-तहज़ीब

जाम-ए-जम से है कहीं पुर-तम्कीं

बज़्म-ए-ख़ुल्लत में सिफ़ाल-ए-तहज़ीब

उस का ख़ूँ करते हैं जो नाहक़-कोश

उन की गर्दन पे वबाल-ए-तहज़ीब

मुर्दा क़ौमों के लिए आब-ए-हयात

बनता जाता है ज़ुलाल-ए-तहज़ीब

बद्र बन जाएगा चंदे में 'हबीब'

हक़ ने चाहा तो हिलाल-ए-तहज़ीब

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