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लैस हो कर जो मिरा तर्क-ए-जफ़ा-कार चले - हबीब मूसवी कविता - Darsaal

लैस हो कर जो मिरा तर्क-ए-जफ़ा-कार चले

लैस हो कर जो मिरा तर्क-ए-जफ़ा-कार चले

सैकड़ों ख़ून हों हर गाम पे तलवार चले

ना-तवानी ने उन्हें दरिया पे जाने न दिया

उठ के सौ बार गिरे राह में सौ बार चले

तेरा कूचा है वो ऐ बुत कि हज़ारों ज़ाहिद

डाल के सुब्हा में याँ रिश्ता-ए-ज़ुन्नार चले

ऐ शह-ए-हुस्न मुकद्दर न हो गर तेरा मिज़ाज

ख़ाक अपनी भी जिलौ में पस-ए-रहवार चले

सुन के ये गर्मी-ए-बाज़ार तेरी ऐ यूसुफ़

नक़्द-ए-जाँ रख के हथेली पे ख़रीदार चले

है यक़ीं हश्र में भी एक नया महशर हो

उठ के गर काकुल-ए-जानाँ के गिरफ़्तार चले

फ़स्ल-ए-गुल आई उठा अब्र चली सर्द हवा

सू-ए-मय-ख़ाना अकड़ते हुए मय-ख़्वार चले

होगा एहसाँ पए गुल-गश्त अगर तू सय्याद

साथ ले कर क़फ़स-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार चले

देर से बैठे थे मुश्ताक़-ए-सुख़न सब ये 'हबीब'

देख उठते ही तेरे बज़्म से हुज़्ज़ार चले

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