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हुए ख़ल्क़ जब से जहाँ में हम हवस-ए-नज़ारा-ए-यार है - हबीब मूसवी कविता - Darsaal

हुए ख़ल्क़ जब से जहाँ में हम हवस-ए-नज़ारा-ए-यार है

हुए ख़ल्क़ जब से जहाँ में हम हवस-ए-नज़ारा-ए-यार है

ठहर ऐ अजल कि वो आएँगे दम-ए-वापसीं का क़रार है

रहें महव क्यूँ न हर एक दम कि नज़र में जल्वा-ए-यार है

दिल-ए-मुंतज़िर है जो आइना तो ख़याल आइना-दार है

ये ख़ता-ए-इश्क़ की दी सज़ा कि मिज़ा से मर्दुम-ए-चश्म ने

मिरा दिल दिखा के ये कह दिया इसे लो ये क़ाबिल-ए-दार है

ये ख़ुदा ही जाने वो कौन था जो शहीद-ए-नाज़-ओ-अदा हुआ

कि उड़ी है ख़ाक-ए-रह-ए-सनम तो ख़िज़ाँ में रंग-ए-बहार है

हुईं तर्क सारी मोहब्बतें मिरे सर पे ढाई हैं आफ़तें

यही दिल के लेने में शर्त थी यही मुझ से क़ौल-ओ-क़रार है

ये जुनूँ की देखिए पुख़्तगी जो कभी किसी ने न हो सुनी

मिरे पैरहन का जो तार है वो हर एक रेशा-ए-ख़ार है

कोई दिल की निकली न आरज़ू हुआ रंज-ओ-ग़म से जिगर लहू

फिरे ख़ाक छानते कू-ब-कू न तो सब्र है न क़रार है

पस-ए-मर्ग भी हैं वही सितम हैं जफ़ाएँ रूह पे दम-ब-दम

इधर आते आते वो फिर गए जो सुना कि मेरा मज़ार है

मिरे सीने को न हदफ़ करो तपिश-ए-जिगर से डरे रहो

पर-ए-मुर्ग़-ए-तीर न जल उठें कि लहू ब-रंग-ए-शरार है

वो ख़ुशी दिखाई न चर्ख़ ने कि एवज़ में जिस के न ग़म दिए

कभी फ़र्श-ए-गुल है जो एक शब तो महीनों बिस्तर-ए-ख़ार है

जिसे दर्द-ए-नाला-ओ-आह है जो शहीद-ए-तेग़-ए-निगाह है

शब-ए-हिज्र उस की गवाह है वो 'हबीब'-ए-सीना-फ़िगार है

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