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बना के आईना-ए-तसव्वुर जहाँ दिल-ए-दाग़-दार देखा - हबीब मूसवी कविता - Darsaal

बना के आईना-ए-तसव्वुर जहाँ दिल-ए-दाग़-दार देखा

बना के आईना-ए-तसव्वुर जहाँ दिल-ए-दाग़-दार देखा

फ़िराक़ में लुत्फ़-ए-वस्ल पाया ख़िज़ाँ में रंग-ए-बहार देखा

तमाम कामों का रास्ते पर हमेशा दार-ओ-मदार देखा

फ़साद तीनत में जिन की पाया हर एक सोहबत में ख़ार देखा

सँभाला जिस दिन से होश हम ने वतन को कुल चंद बार देखा

न की अज़ीज़ों की ग़म-गुसारी न फिर के अपना दयार देखा

हुए जो मानूस कज-रवी से फिरे रह-ए-सिद्क़-ओ-रास्ती से

न बैठे इक रोज़ वो ख़ुशी से न कुछ ब-जुज़ इंतिशार देखा

बिसात-ए-ऐश-ओ-तरब है बरहम ये है नशेब-ओ-फ़राज़-ए-आलम

पियादा हैं उन को देखते हम जिन्हें हमेशा सवार देखा

पड़ी है पीछे कुछ ऐसी शामत मिटा रहे हैं निशान-ए-सर्वत

बहुत अज़ीज़ों को बहर-ए-शोहरत गँवाते अपना वक़ार देखा

जमा था जिस वक़्त रंग-ए-सोहबत था नेक-ओ-बद में भी लुत्फ़-ए-ख़ुल्लत

मगर ख़िज़ाँ आई या क़यामत न फूल देखा न ख़ार देखा

दिल-ओ-जिगर को हुआ गवारा कहाँ सुरूर-ए-शराब-ए-हस्ती

मिला कभी इज़्तिरार में ये कभी उसे बे-क़रार देखा

गया वो दौर-ए-सियाह-मस्ती रहा फ़क़त नाम-ए-मय-परस्ती

जो ज़ोफ़-ए-पीरी में आँख खोली तो कुछ तबीअत पे बार देखा

'हबीब' हम हम-सफ़ीर-ए-बुलबुल हमेशा थे गुलशन-ए-जहाँ में

वफ़ा की ख़ू बू हो जिस में वो गुल नज़र न आया हज़ार देखा

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