मुंतशिर हम हैं तो रुख़्सारों पे शबनम क्यूँ है
आइने टूटते रहते हैं तुम्हें ग़म क्यूँ है
वही लम्हे वही मंज़र वही यादों के हुजूम
मेरे कमरे में उजाला है मगर कम क्यूँ है
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सूरज के ख़ुदाओं की ये कोर-निगाही है
ऐसा कहाँ कि शहर के मंज़र बदल गए