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बे-नियाज़ी से मुदारात से डर लगता है - हबीब अशअर देहलवी कविता - Darsaal

बे-नियाज़ी से मुदारात से डर लगता है

बे-नियाज़ी से मुदारात से डर लगता है

जाने क्या बात है हर बात से डर लगता है

साग़र-ए-बादा-ए-गुल-रंग तो कुछ दूर नहीं

निगह-ए-पीर-ए-ख़राबात से डर लगता है

दिल पे खाई हुई इक चोट उभर आती है

तेरे दीवाने को बरसात से डर लगता है

ऐ दिल अफ़साना-ए-आग़ाज़-ए-वफ़ा रहने दे

मुझ को बीते हुए लम्हात से डर लगता है

हाथ से ज़ब्त का दामन न कहीं छुट जाए

आप की पुर्सिश-ए-हालात से डर लगता है

मैं जो उस बज़्म में जाता नहीं 'अशअर' मुझ को

अपने सहमे हुए जज़्बात से डर लगता है

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