वो भला कैसे बताए कि ग़म-ए-हिज्र है क्या
जिस को आग़ोश-ए-मोहब्बत कभी हासिल न हुआ
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मौत के ब'अद भी मरने पे न राज़ी होना
अब बहुत दूर नहीं मंज़िल-ए-दोस्त
आप शर्मिंदा जफ़ाओं पे न हों
न हो कुछ और तो वो दिल अता हो
उन निगाहों को अजब तर्ज़-ए-कलाम आता है
गुलों से इतनी भी वाबस्तगी नहीं अच्छी
हर क़दम पर है एहतिसाब-ए-अमल
न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है
मेरे लिए जीने का सहारा है अभी तक
कभी बे-कली कभी बे-दिली है अजीब इश्क़ की ज़िंदगी
फ़ैज़-ए-अय्याम-ए-बहार अहल-ए-क़फ़स क्या जानें
फ़ैज़ पहुँचे हैं जो बहारों से