तस्लीम है सआदत-ए-होश-ओ-ख़िरद मगर
जीने के वास्ते दिल-ए-नादाँ भी चाहिए
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ये महर-ओ-माह-ओ-कवाकिब की बज़्म-ए-ला-महदूद
आफ़ियत की उम्मीद क्या कि अभी
फ़ैज़-ए-अय्याम-ए-बहार अहल-ए-क़फ़स क्या जानें
नवेद-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार भी तो नहीं
इज़हार-ए-ग़म किया था ब-उम्मीद-ए-इल्तिफ़ात
जो काम करने हैं उस में न चाहिए ताख़ीर
मुझ को एहसास-ए-रंग-ओ-बू न हुआ
वो भला कैसे बताए कि ग़म-ए-हिज्र है क्या
तग-ओ-ताज़-ए-पैहम है मीरास-ए-आदम
गुलों से इतनी भी वाबस्तगी नहीं अच्छी
निगाह-ए-लुत्फ़ को उल्फ़त-शिआर समझे थे
कुछ भी दुश्वार नहीं अज़्म-ए-जवाँ के आगे