रानाई-ए-बहार पे थे सब फ़रेफ़्ता
अफ़सोस कोई महरम-ए-राज़-ए-ख़िज़ाँ न था
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ये महर-ओ-माह-ओ-कवाकिब की बज़्म-ए-ला-महदूद
न हो कुछ और तो वो दिल अता हो
मुझ को दिमाग़-ए-शेवन-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं
कितने सनम ख़ुद हम ने तराशे
मुझ को एहसास-ए-रंग-ओ-बू न हुआ
न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है
अब बहुत दूर नहीं मंज़िल-ए-दोस्त
कुछ भी दुश्वार नहीं अज़्म-ए-जवाँ के आगे
बताए कौन किसी को निशान-ए-मंज़िल-ज़ीस्त
अब तो जो शय है मिरी नज़रों में है ना-पाएदार
उन निगाहों को अजब तर्ज़-ए-कलाम आता है
जबीं-ए-नवाज़ किसी की फ़ुसूँ-गरी क्यूँ है