मौत के ब'अद भी मरने पे न राज़ी होना
यही एहसास तो सरमाया-ए-दीं होता है
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तग-ओ-ताज़-ए-पैहम है मीरास-ए-आदम
एक काबा के सनम तोड़े तो क्या
फ़ैज़ पहुँचे हैं जो बहारों से
निगाह-ए-लुत्फ़ को उल्फ़त-शिआर समझे थे
जबीं-ए-नवाज़ किसी की फ़ुसूँ-गरी क्यूँ है
तस्लीम है सआदत-ए-होश-ओ-ख़िरद मगर
दुनिया को रू-शनास-ए-हक़ीक़त न कर सके
है नवेद-ए-बहार हर लब पर
इज़हार-ए-ग़म किया था ब-उम्मीद-ए-इल्तिफ़ात
चश्म-ए-सय्याद पे हर लहज़ा नज़र रखता है
या दैर है या काबा है या कू-ए-बुताँ है
कुछ भी दुश्वार नहीं अज़्म-ए-जवाँ के आगे