जब कोई फ़ित्ना-ए-अय्याम नहीं होता है
ज़िंदगी का बड़ी मुश्किल से यक़ीं होता है
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आश्ना जब तक न था उस की निगाह-ए-लुत्फ़ से
आफ़ियत की उम्मीद क्या कि अभी
फ़ैज़ पहुँचे हैं जो बहारों से
इक फ़स्ल-ए-गुल को ले के तही-दस्त क्या करें
दुनिया को रू-शनास-ए-हक़ीक़त न कर सके
है नवेद-ए-बहार हर लब पर
हाए बे-दाद-ए-मोहब्बत कि ये ईं बर्बादी
बताए कौन किसी को निशान-ए-मंज़िल-ज़ीस्त
तस्लीम है सआदत-ए-होश-ओ-ख़िरद मगर
वो दर्द-ए-इश्क़ जिस को हासिल-ए-ईमाँ भी कहते हैं
चश्म-ए-सय्याद पे हर लहज़ा नज़र रखता है
निगाह-ए-लुत्फ़ को उल्फ़त-शिआर समझे थे