हज़ारों तमन्नाओं के ख़ूँ से हम ने
ख़रीदी है इक तोहमत-ए-पारसाई
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कुछ भी दुश्वार नहीं अज़्म-ए-जवाँ के आगे
जो काम करने हैं उस में न चाहिए ताख़ीर
वो दर्द-ए-इश्क़ जिस को हासिल-ए-ईमाँ भी कहते हैं
इज़हार-ए-ग़म किया था ब-उम्मीद-ए-इल्तिफ़ात
दुनिया को रू-शनास-ए-हक़ीक़त न कर सके
तस्लीम है सआदत-ए-होश-ओ-ख़िरद मगर
गुलों से इतनी भी वाबस्तगी नहीं अच्छी
ये ग़म नहीं है कि अब आह-ए-ना-रसा भी नहीं
एक काबा के सनम तोड़े तो क्या
कितने सनम ख़ुद हम ने तराशे
निगाह-ए-लुत्फ़ को उल्फ़त-शिआर समझे थे
इक फ़स्ल-ए-गुल को ले के तही-दस्त क्या करें