हाए बे-दाद-ए-मोहब्बत कि ये ईं बर्बादी
हम को एहसास-ए-ज़ियाँ भी तो नहीं होता है
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नवेद-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार भी तो नहीं
वो दर्द-ए-इश्क़ जिस को हासिल-ए-ईमाँ भी कहते हैं
अब तो जो शय है मिरी नज़रों में है ना-पाएदार
आप शर्मिंदा जफ़ाओं पे न हों
मुझ को एहसास-ए-रंग-ओ-बू न हुआ
वो भला कैसे बताए कि ग़म-ए-हिज्र है क्या
हर क़दम पर है एहतिसाब-ए-अमल
दुनिया को रू-शनास-ए-हक़ीक़त न कर सके
और ऐ चश्म-ए-तरब बादा-ए-गुलफ़ाम अभी
इक फ़स्ल-ए-गुल को ले के तही-दस्त क्या करें
वो करम हो कि सितम एक तअल्लुक़ है ज़रूर
फ़ैज़ पहुँचे हैं जो बहारों से