एक काबा के सनम तोड़े तो क्या
नस्ल-ओ-मिल्लत के सनम-ख़ाने बहुत
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जिस के वास्ते बरसों सई-ए-राएगाँ की है
नवेद-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार भी तो नहीं
इक फ़स्ल-ए-गुल को ले के तही-दस्त क्या करें
आप शर्मिंदा जफ़ाओं पे न हों
कुछ भी दुश्वार नहीं अज़्म-ए-जवाँ के आगे
तस्लीम है सआदत-ए-होश-ओ-ख़िरद मगर
ख़िज़ाँ-नसीब की हसरत ब-रू-ए-कार न हो
इज़हार-ए-ग़म किया था ब-उम्मीद-ए-इल्तिफ़ात
बताए कौन किसी को निशान-ए-मंज़िल-ज़ीस्त
हाए बे-दाद-ए-मोहब्बत कि ये ईं बर्बादी
मुझ को दिमाग़-ए-शेवन-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं
गुलों से इतनी भी वाबस्तगी नहीं अच्छी