चश्म-ए-सय्याद पे हर लहज़ा नज़र रखता है
हाए वो सैद जो कहने को तह-ए-दाम नहीं
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उन निगाहों को अजब तर्ज़-ए-कलाम आता है
आश्ना जब तक न था उस की निगाह-ए-लुत्फ़ से
कुछ भी दुश्वार नहीं अज़्म-ए-जवाँ के आगे
आप शर्मिंदा जफ़ाओं पे न हों
हर क़दम पर है एहतिसाब-ए-अमल
गुलों से इतनी भी वाबस्तगी नहीं अच्छी
या दैर है या काबा है या कू-ए-बुताँ है
इक फ़स्ल-ए-गुल को ले के तही-दस्त क्या करें
अब तो जो शय है मिरी नज़रों में है ना-पाएदार
अपने दामन में एक तार नहीं
ये ग़म नहीं है कि अब आह-ए-ना-रसा भी नहीं
मुझ को एहसास-ए-रंग-ओ-बू न हुआ