बताए कौन किसी को निशान-ए-मंज़िल-ज़ीस्त
अभी तो हुज्जत-ए-बाहम है रहगुज़र के लिए
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दुनिया को रू-शनास-ए-हक़ीक़त न कर सके
ये ग़म नहीं है कि अब आह-ए-ना-रसा भी नहीं
आश्ना जब तक न था उस की निगाह-ए-लुत्फ़ से
मौत के ब'अद भी मरने पे न राज़ी होना
इक फ़स्ल-ए-गुल को ले के तही-दस्त क्या करें
है नवेद-ए-बहार हर लब पर
एक काबा के सनम तोड़े तो क्या
अपने दामन में एक तार नहीं
वो भला कैसे बताए कि ग़म-ए-हिज्र है क्या
हज़ारों तमन्नाओं के ख़ूँ से हम ने
जबीं-ए-नवाज़ किसी की फ़ुसूँ-गरी क्यूँ है
जिस के वास्ते बरसों सई-ए-राएगाँ की है