अब बहुत दूर नहीं मंज़िल-ए-दोस्त
काबे से चंद क़दम और सही
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जबीं-ए-नवाज़ किसी की फ़ुसूँ-गरी क्यूँ है
गुलों से इतनी भी वाबस्तगी नहीं अच्छी
वो करम हो कि सितम एक तअल्लुक़ है ज़रूर
इज़हार-ए-ग़म किया था ब-उम्मीद-ए-इल्तिफ़ात
हाए बे-दाद-ए-मोहब्बत कि ये ईं बर्बादी
निगाह-ए-लुत्फ़ को उल्फ़त-शिआर समझे थे
फ़ैज़ पहुँचे हैं जो बहारों से
तस्लीम है सआदत-ए-होश-ओ-ख़िरद मगर
इक फ़स्ल-ए-गुल को ले के तही-दस्त क्या करें
न हो कुछ और तो वो दिल अता हो
मौत के ब'अद भी मरने पे न राज़ी होना