आप शर्मिंदा जफ़ाओं पे न हों
जिन पे गुज़री थी वही भूल गए
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एक काबा के सनम तोड़े तो क्या
फ़ैज़ पहुँचे हैं जो बहारों से
हज़ारों तमन्नाओं के ख़ूँ से हम ने
आफ़ियत की उम्मीद क्या कि अभी
हाए बे-दाद-ए-मोहब्बत कि ये ईं बर्बादी
अब तो जो शय है मिरी नज़रों में है ना-पाएदार
आश्ना जब तक न था उस की निगाह-ए-लुत्फ़ से
निगाह-ए-लुत्फ़ को उल्फ़त-शिआर समझे थे
मुझ को दिमाग़-ए-शेवन-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं
रानाई-ए-बहार पे थे सब फ़रेफ़्ता
जिस के वास्ते बरसों सई-ए-राएगाँ की है
अपने दामन में एक तार नहीं