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उन निगाहों को अजब तर्ज़-ए-कलाम आता है - हबीब अहमद सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

उन निगाहों को अजब तर्ज़-ए-कलाम आता है

उन निगाहों को अजब तर्ज़-ए-कलाम आता है

ऐसा लगता है बहारों का पयाम आता है

मरहला होता है जब दार-ओ-रसन का दरपेश

क़ुरआ-ए-फ़ाल हम ऐसों ही के नाम आता है

ऐ मिरे नासेह-ए-मुशफ़िक़ कभी ये भी सोचा

कौन दुनिया में ख़ुशी से तह-ए-दाम आता है

बादा-नोशी में भी है कैफ़-ए-सुकूँ-बख़्श मगर

हाए वो कैफ़ जो बे-मिन्नत-ए-जाम आता है

अपनी हँसती का भी एहसास जहाँ हो न सके

आलम-ए-होश में इक वो भी मक़ाम आता है

पेश-दस्ती है ख़राबात-ए-जहाँ का दस्तूर

तकते रहने से कहीं हाथ में जाम आता है

अहल-ए-हिम्मत के हसीं ख़्वाबों की निकली ता'बीर

इब्न-ए-आदम को सितारों का सलाम आता है

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