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नवेद-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार भी तो नहीं - हबीब अहमद सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

नवेद-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार भी तो नहीं

नवेद-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार भी तो नहीं

ये बे-दिली है कि अब इंतिज़ार भी तो नहीं

जो भूल जाए कोई शग़्ल-ए-जाम-ओ-मीना में

ग़म-ए-हबीब ग़म-ए-रोज़गार भी तो नहीं

मरीज़-ए-बादा-ए-इशरत ये इक जहाँ क्यूँ है

सुरूर-ए-बादा ब-कद्र-ए-ख़ुमार भी तो नहीं

मता-ए-सब्र-ओ-सुकूँ जिस ने दिल से छीन लिया

वो दिल-नवाज़ अदा-आश्कार भी तो नहीं

क़फ़स में जी मिरा लग तो नहीं गया हमदम

कि अब वो नाला-ए-बे-इख़्तयार भी तो नहीं

है ऐन वस्ल में भी पुर-ख़रोश-ए-परवाना

सुकून-ए-क़ल्ब ब-आग़ोश-ए-यार भी तो नहीं

निगाह-ए-नाज़ कि बेगाना-ए-मुहब्बत है

सितम तो ये है कि बे-गाना-वार भी तो नहीं

वो एक रहबर-ए-नादाँ कि जिस को इश्क़ कहें

डुबो के कश्ती-ए-दिल शर्मसार भी तो नहीं

जुनूँ को दर्स-ए-अमल दे के क्या करे कोई

ब-क़द्र-ए-हौसला-ए-दिल बहार भी तो नहीं

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