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ख़िज़ाँ-नसीब की हसरत ब-रू-ए-कार न हो - हबीब अहमद सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

ख़िज़ाँ-नसीब की हसरत ब-रू-ए-कार न हो

ख़िज़ाँ-नसीब की हसरत ब-रू-ए-कार न हो

बहार शो'बदा-ए-चश्म-ए-इन्तिज़ार न हो

फ़रेब-ख़ूर्दा-ए-उल्फ़त से पूछिए क्या है

वो एक अहद-ए-मोहब्बत कि उस्तुवार न हो

नज़र को ताब-ए-नज़ारा न दिल को जुरअत-ए-दीद

जमाल-ए-यार से यूँ कोई शर्मसार न हो

क़बा-दरीदा-ओ-दामान-ओ-आस्तीं ख़ूनीं

गुलों के भेस में ये कोई दिल-फ़िगार न हो

न हो सकेगा वो रम्ज़-आश्ना-ए-कैफ़-ए-हयात

जो क़ल्ब चश्म-ए-तग़ाफ़ुल का राज़दार न हो

तरीक़-ए-इश्क़ पे हँसती तो है ख़िरद लेकिन

ये गुमरही कहीं मंज़िल से हम-कनार न हो

न ता'ना-ज़न हो कोई अहल-ए-होश मस्तों पर

कि ज़ोम-ए-होश भी इक आलम-ए-ख़ुमार न हो

वो क्या बताए कि क्या शय उमीद होती है

जिसे नसीब कभी शाम-ए-इंतिज़ार न हो

ये चश्म-ए-लुत्फ़ मुबारक मगर दिल-ए-नादाँ

पयाम-ए-इश्वा-ए-रंगीं सला-ए-दार न हो

किसी के लब पे जो आए नवेद-ए-ज़ीस्त बने

वही हदीस-ए-वफ़ा जिस पे ए'तिबार न हो

जो दो-जहान भी माँगे तो मैं ने क्या माँगा

वो क्या तलब जो ब-क़द्र-ए-अता-ए-यार न हो

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