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जबीं-ए-नवाज़ किसी की फ़ुसूँ-गरी क्यूँ है - हबीब अहमद सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

जबीं-ए-नवाज़ किसी की फ़ुसूँ-गरी क्यूँ है

जबीं-ए-नवाज़ किसी की फ़ुसूँ-गरी क्यूँ है

सरिश्त-ए-हुस्न में इस दर्जा दिलकशी क्यूँ है

किसी की सादा जबीं क्यूँ बनी है सेहर-तराज़

किसी की बात में एजाज़-ए-ईसवी क्यूँ है

किसी की ज़ुल्फ़-ए-मोअ'म्बर में क्यूँ है गीराई

फ़िदा-ए-गेसू-ए-मुश्कीं ये ज़िंदगी क्यूँ है

तिरे शिआ'र-ए-तग़ाफ़ुल पे ज़िंदगी क़ुर्बां

तिरे शिआ'र-ए-तग़ाफ़ुल में दिलकशी क्यूँ है

कहीं ज़िया-ए-तबस्सुम न हो करम-फ़रमा

जुमूद-ए-क़ल्ब में हैजान-ए-ज़िंदगी क्यूँ है

ये कब कहा है कि तुम वज्ह-ए-शोरिश-ए-दिल हो

ये पूछता हूँ कि दिल में ये बेकली क्यूँ है

निगाह-ए-नाज़ कि वाबस्ता-ए-जिगर थी कभी

बता फ़रेब-ए-तमन्ना कि सरसरी क्यूँ है

भटक भटक के मैं नाकाम-ए-जुस्तुजू ही रहा

ख़मोश मेरे लिए शम-ए-रहबरी क्यूँ है

हयात-ओ-मौत न अपनी न मैं ही ख़ुद अपना

मिरे वजूद पे इल्ज़ाम-ए-ज़िंदगी क्यूँ है

रग-ए-हयात में दौड़ा के बर्क़-ए-सरताबी

ख़ता-मुआफ़ ये इल्ज़ाम-ए-ख़ुद-सरी क्यूँ है

बिसात-ए-दहर सही जल्वा-गाह-ए-हुस्न-ए-अज़ल

निगाह-ए-शौक़ फ़ुग़ाँ-संज-ए-तिश्नगी क्यूँ है

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