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दुनिया को रू-शनास-ए-हक़ीक़त न कर सके - हबीब अहमद सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

दुनिया को रू-शनास-ए-हक़ीक़त न कर सके

दुनिया को रू-शनास-ए-हक़ीक़त न कर सके

हम जितना चाहते थे मोहब्बत न कर सके

सामान-ए-गुल-फ़रोशी-ए-राहत न कर सके

राहत को हम शरीक-ए-मोहब्बत न कर सके

यूँ कसरत-ए-जमाल ने लूटी मता-ए-दीद

तसकीन-ए-तिश्ना-कामी-ए-हैरत न कर सके

अब इश्क़-ए-खाम-कार ही अरमाँ को दे जवाब

हम उन को बे-क़रार-ए-मोहब्बत न कर सके

बे-मेहरियों से काम रहा गो तमाम-उम्र

बे-मेहरियों को सहने की आदत न कर सके

कुछ ऐसी इल्तिफ़ात-नुमा थी निगाह-ए-दोस्त

होते रहे तबाह शिकायत न कर सके

नाकामियाँ तो फ़र्ज़ अदा अपना कर गईं

हम हैं कि ए'तिराफ़-ए-हज़ीमत न कर सके

फ़ख़्र-ए-मुनासिबत में तिरा नाम ले लिया

हम ख़ुद ही पर्दा-ए-दारी-ए-उलफ़त न कर सके

हर-चंद हाल-ए-दीदा-ओ-दिल हम कहा किए

तशरीह-ए-कैफ़ियात-ए-मोहब्बत न कर सके

अफ़्लाक पर तो हम ने बनाईं हज़ार-हा

ता'मीर कोई दहर में जन्नत न कर सके

हमसाएगी-ए-ज़ाहिद-ए-बद-ख़ू के ख़ौफ़ से

परवरदिगार तेरी इबादत न कर सके

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