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और ऐ चश्म-ए-तरब बादा-ए-गुलफ़ाम अभी - हबीब अहमद सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

और ऐ चश्म-ए-तरब बादा-ए-गुलफ़ाम अभी

और ऐ चश्म-ए-तरब बादा-ए-गुलफ़ाम अभी

दिल है बे-गाना-ए-अंदेशा-ए-अंजाम अभी

बादा-ए-ओ-साक़ी-ओ-मुतरिब का न लो नाम अभी

गर्द-आलूद है आईना-ए-अय्याम अभी

दिल है मजरूह पर-ओ-बाल शिकस्ता हमदम

दाम से छूट के भी हूँ मैं तह-ए-दाम अभी

मानी-ओ-मक़सद-ए-हस्ती का समझना मा'लूम

अक़्ल है सिर्फ़ परस्तारी-ए-औहाम अभी

इशरत-ए-जल्वा-ए-बे-बाक मुबारक ऐ इश्क़

दीदा-ओ-दिल हैं मगर तिश्ना-ए-पैग़ाम अभी

ग़म नहीं सब पे अगर चश्म-ए-करम है तेरी

ग़म तो ये है कि सितम भी है तिरा आम अभी

ऐ सुबुक-सैर-ए-नज़र एक पयाम-ए-रंगीं

है हरीफ़-ए-ग़म-ए-दिल गर्दिश-ए-अय्याम अभी

दावत-ए-शौक़ ब-उन्वान-ए-सितम भी तो नहीं

उस पे इल्ज़ाम कि है जज़्बा-ए-दिल ख़ाम अभी

तू ने क्या चीज़ बना दी निगह-ए-सेहर-तराज़

वो जो थी शीशा-ए-दिल में मय-ए-बे-नाम अभी

ज़िंदगी मंज़िल-ए-मक़्सूद से आगाह नहीं

उस की मेराज है परवाज़ सर-ए-बाम अभी

किस को ये होश कि पैग़ाम-ए-मोहब्बत समझे

दिल है वारफ़्ता-ए-रंगीनी-ए-पैग़ाम अभी

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