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आज उन्हें देख लिया बज़्म में फ़र्ज़ानों की - हबाब तिर्मिज़ी कविता - Darsaal

आज उन्हें देख लिया बज़्म में फ़र्ज़ानों की

आज उन्हें देख लिया बज़्म में फ़र्ज़ानों की

हम ने तारीफ़ सुनी थी तिरे दीवानों की

दीदा-वर सिलसिला-ए-अश्क समझते हैं जिसे

कहकशाँ है मिरे महबूब के एहसानों की

तुम को आना है तो आ जाओ उजाला है अभी

शमएँ रौशन हैं मिरे ग़म के शबिस्तानों की

मो'तरिज़ हैं मिरी दीवाना-वशी पर वो लोग

जिन को दामन की ख़बर है न गरेबानों की

हम हैं मय-ख़ाना-ए-फ़ितरत के शराबी हम को

न सुराही की ज़रूरत है न पैमानों की

हँस रहे हो तो हँसो और हँसो ख़ूब हँसो

हालत-ए-ज़ार पे हम बे-सर-ओ-सामानों की

अहद-ए-हाज़िर के नए 'मीर' वहाँ होंगे 'हबाब'

मुझ को महफ़िल में न ले जाओ सुख़न-दानों की

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