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उमीद-ओ-बीम के आलम में दिल दहलता है - हबाब हाश्मी कविता - Darsaal

उमीद-ओ-बीम के आलम में दिल दहलता है

उमीद-ओ-बीम के आलम में दिल दहलता है

वो आते आते कई रास्ते बदलता है

अभी तो शाम है तन्क़ीद कर न रिंदों पर

सुना है रात गए मय-कदा सँभलता है

न कोई ख़ौफ़ न अंदेशा और न रख़्त-ए-सफ़र

ये कौन है जो मिरे साथ साथ चलता है

हमारे वास्ते जिस जा पे हद्द-ए-फ़ासिल है

वहीं से एक नया रास्ता निकलता है

अजीब चीज़ है ये कर्ब-ए-ख़ुद-कलामी भी

जो बात कीजे तो इक सिलसिला निकलता है

न जाने कितने सर-ए-पुर-ग़ुरूर कटते हैं

अजीब शख़्स है तलवार बन के चलता है

'हबाब' शिकवा बजा लाओ नक़्द-ए-जाँ के तुफ़ैल

तुम्हारे नाम का सिक्का यहाँ भी चलता है

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