साग़र में शक्ल-ए-दुख़्तर-ए-रज़ कुछ बदल गई
साग़र में शक्ल-ए-दुख़्तर-ए-रज़ कुछ बदल गई
ख़ुम से निकल के नूर के साँचे में ढल गई
सद-साला दौर-ए-चर्ख़ था साग़र का एक दौर
निकले जो मय-कदे से तो दुनिया बदल गई
कहती है नीम-वा ये चमन की कली कली
फ़रियाद-ए-अंदलीब कलेजा मसल गई
साक़ी इधर उठा था उधर हाथ उठ गए
बोतल से काग उड़ा था कि रिंदों में चल गई
अंगड़ाई ले के और भी वो सोए चैन से
फूलों की पंखियाँ जो नसीम आ के झल गई
दामन में दुख़्त-ए-रज़ ने लगाया ज़रूर दाग़
जिस पारसा की गोद में जा कर मचल गई
घबरा के बोले नामा-ए-'गुस्ताख़' तो नहीं
जब उन के पास कोई हमारी ग़ज़ल गई
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