राख को भी कुरेद कर देखो
अभी जलता हो कोई पल शायद
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किताबें
कभी तो चौंक के देखे कोई हमारी तरफ़
नज़्म
ये रोटियाँ हैं ये सिक्के हैं और दाएरे हैं
भरे हैं रात के रेज़े कुछ ऐसे आँखों में
कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है
रूह देखी है कभी!
ज़िक्र होता है जहाँ भी मिरे अफ़्साने का
आइना देख कर तसल्ली हुई
खुली किताब के सफ़्हे उलटते रहते हैं
गुलों को सुनना ज़रा तुम सदाएँ भेजी हैं
मैं काएनात में