अपने साए से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस क़दर तन्हा
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दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है
गिरहें
आप के बा'द हर घड़ी हम ने
फ़ज़ा
वो एक दिन एक अजनबी को
हर एक ग़म निचोड़ के हर इक बरस जिए
जिस की आँखों में कटी थीं सदियाँ
शहतूत की शाख़ पे
हम तो कितनों को मह-जबीं कहते
ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता
शाम से आँख में नमी सी है
शफ़क़