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तख़्लीक़ - गुलज़ार कविता - Darsaal

तख़्लीक़

तुम्हारे होंटों की ठंडी ठंडी तिलावतें

झुक के मेरी आँखों को छू रही हैं

मैं अपने होंटों से चुन रहा हूँ तुम्हारी साँसों की आयतों को

कि जिस्म के इस हसीन काबे पे रूह सज्दे बिछा रही है

वो एक लम्हा बड़ा मुक़द्दस था जिस में तुम जन्म ले रही थीं

वो एक लम्हा बड़ा मुक़द्दस था जिस में मैं जन्म ले रहा था

ये एक लम्हा बड़ा मुक़द्दस है जिस को हम जन्म दे रहे हैं

ख़ुदा ने ऐसे ही एक लम्हे में सोचा होगा

हयात तख़्लीक़ कर के लम्हे के लम्स को जावेदाँ भी कर दे!

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