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तआक़ुब - गुलज़ार कविता - Darsaal

तआक़ुब

सुब्ह से शाम हुई और हिरन मुझ को छलावे देता

सारे जंगल में परेशान किए घूम रहा है अब तक

उस की गर्दन के बहुत पास से गुज़रे हैं कई तीर मिरे

वो भी अब उतना ही हुश्यार है जितना मैं हूँ

इक झलक दे के जो गुम होता है वो पेड़ों में

मैं वहाँ पहुँचूँ तो टीले पे कभी चश्मे के उस पार नज़र आता है

वो नज़र रखता है मुझ पर

मैं उसे आँख से ओझल नहीं होने देता

कौन दौड़ाए हुए है किस को

कौन अब किस का शिकारी है पता ही नहीं चलता

सुब्ह उतरा था मैं जंगल में

तो सोचा था कि उस शोख़ हिरन को

नेज़े की नोक पे परचम की तरह तान के मैं शहर में दाख़िल हूँगा

दिन मगर ढलने लगा है

दिल में इक ख़ौफ़ सा अब बैठ रहा है

कि बिल-आख़िर ये हिरन ही

मुझे सींगों पर उठाए हुए इक ग़ार में दाख़िल होगा

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