आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर
टूटता भी है, डूबता भी है
फिर उभरता है फिर से बहता है
न समुंदर निगल सका इस को
न तवारीख़ तोड़ पाई है
वक़्त की मौज पर सदा बहता
Jaun Eliya
Allama Iqbal
Rahat Indori
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
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विरासत
सब्र हर बार इख़्तियार किया
गुलों को सुनना ज़रा तुम सदाएँ भेजी हैं
अपने साए से चौंक जाते हैं
फूल ने टहनी से उड़ने की कोशिश की
डाइरी
चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई
आप ने औरों से कहा सब कुछ
सिद्धार्थ की एक रात
मैं काएनात में
जब भी आँखों में अश्क भर आए
ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़्साने में