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मकान - गुलज़ार कविता - Darsaal

मकान

एक लुढ़की हुई वादी में

बहुत नीचे ख़लाओं से

जहाँ धुँदली फ़ज़ाओं का चलन है

ख़स्ता सा एक मकाँ मुझ को विरासत में मिला है

जिस तरह सूख के ज़ख़्मों से गिरा करती है पपड़ी

उस की दीवारों से इस तरह से गिरता है प्लस्तर

एक पाँव पे खड़े सारे सुतूँ थक से गए हैं

ख़ुर्दा दाँतों की तरह हिलती हैं हर ताक़ में ईंटें

मोच खाई हुई कुछ खिड़कियाँ तिरछी सी खड़ी हैं

काँच धुँदलाए हुए चटख़े हुए

पहले बाहर की तरफ़ खुलती थीं अफ़्लाक की जानिब

अब ये अंदर भी नहीं खुलतीं अगर साँस घुटे

अब्र-आलूद हैं अब

और हवाओं में भी सूराख़ पड़े हैं

मेरा पैदाइशी घर है मुझे रहना है यहीं पर

एक मैला सा फ़लक है तो मिरे सर पे अभी तक

डरता हूँ गिर न पड़े सोते में एक रोज़ कहीं

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Makan In Hindi By Famous Poet Gulzar. Makan is written by Gulzar. Complete Poem Makan in Hindi by Gulzar. Download free Makan Poem for Youth in PDF. Makan is a Poem on Inspiration for young students. Share Makan with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.