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मैं काएनात में - गुलज़ार कविता - Darsaal

मैं काएनात में

मैं काएनात में सय्यारों में भटकता था

धुएँ में धूल में उलझी हुई किरन की तरह

मैं इस ज़मीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक

गिरा है वक़्त से कट कर जो लम्हा उस की तरह

वतन मिला तो गली के लिए भटकता रहा

गली में घर का निशाँ ढूँडता रहा बरसों

तुम्हारी रूह में अब जिस्म में भटकता हूँ

लबों से चूम लो आँखों से थाम लो मुझ को

तुम्हारी कोख से जन्मूँ तो फिर पनाह मिले!

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