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ख़ुदा - गुलज़ार कविता - Darsaal

ख़ुदा

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैं ने!

काले घर में सूरज रख के

तुम ने शायद सोचा था मेरे सब मोहरे पिट जाएँगे

मैं ने एक चराग़ जला कर

अपना रस्ता खोल लिया

तुम ने एक समुंदर हाथ में ले कर मुझ पर ढील दिया

मैं ने नूह की कश्ती के उपर रख दी

काल चला तुम ने और मेरी जानिब देखा

मैं ने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया

मेरी ख़ुदी को तुम ने चंद चमतकारों से मारना चाहा

मेरे इक प्यादे ने तेरा चाँद का मुहरा मार लिया

मौत को शह दे कर तुम ने समझा था अब तो मात हुई

मैं ने जिस्म का ख़ोल उतार के सोंप दिया... और रूह बचा ली!

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी!!

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