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खंडर - गुलज़ार कविता - Darsaal

खंडर

मैं खंडरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूँ

क़दीम रातों की टूटी क़ब्रों के मैले कत्बे

दिनों की टूटी हुई सलीबें गिरी पड़ी हैं

शफ़क़ की ठंडी चिताओं से राख उड़ रही है

जगह जगह गुर्ज़ वक़्त के चूर हो गए हैं

जगह जगह ढेर हो गई हैं अज़ीम सदियाँ

मैं खंडरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूँ

यहीं मुक़द्दस, हथेलियों से गिरी है मेहंदी

दियों की टूटी हुई लवें ज़ंग खा गई हैं

यहीं पे माथों की रौशनी जल के बुझ गई है

सपाट चेहरों के ख़ाली पन्ने खुले हुए हैं

हुरूफ़ आँखों के मिट चुके हैं

मैं खंडरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूँ

यहीं कहीं ज़िंदगी के मअ'नी गिरे हैं और गिर के खो गए हैं

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