खंडर
मैं खंडरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूँ
क़दीम रातों की टूटी क़ब्रों के मैले कत्बे
दिनों की टूटी हुई सलीबें गिरी पड़ी हैं
शफ़क़ की ठंडी चिताओं से राख उड़ रही है
जगह जगह गुर्ज़ वक़्त के चूर हो गए हैं
जगह जगह ढेर हो गई हैं अज़ीम सदियाँ
मैं खंडरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूँ
यहीं मुक़द्दस, हथेलियों से गिरी है मेहंदी
दियों की टूटी हुई लवें ज़ंग खा गई हैं
यहीं पे माथों की रौशनी जल के बुझ गई है
सपाट चेहरों के ख़ाली पन्ने खुले हुए हैं
हुरूफ़ आँखों के मिट चुके हैं
मैं खंडरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूँ
यहीं कहीं ज़िंदगी के मअ'नी गिरे हैं और गिर के खो गए हैं
(1917) Peoples Rate This