ग़ालिब
बल्ली-माराँ के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ
सामने टाल के नुक्कड़ पे बेड़ों के क़सीदे
चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के पर्दे
और धुंद्लाई हुई शाम के बे-नूर अँधेरे साए
ऐसे दीवारों से मुँह जोड़ कर चलते हैं यहाँ
चूड़ी-वालान कटरे की बड़ी-बी जैसे
अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले
इस बे-नूर अँधेरी सी गली-क़ासिम से
एक तरतीब चराग़ों की शुरूअ' होती है
एक क़ुर्आन-ए-सुख़न का भी वरक़ खुलता है
असदुल्लाह-ख़ाँ-'ग़ालिब' का पता मिलता है
(1987) Peoples Rate This