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एक दौर - गुलज़ार कविता - Darsaal

एक दौर

चाँद क्यूँ अब्र की उस मैली सी गठरी में छुपा था

उस के छुपते ही अंधेरों के निकल आए थे नाख़ुन

और जंगल से गुज़रते हुए मासूम मुसाफ़िर

अपने चेहरों को खरोंचों से बचाने के लिए चीख़ पड़े थे

चाँद क्यूँ अब्र की उस मैली सी गठरी में छुपा था

उस के छुपते ही उतर आए थे शाख़ों से लटकते हुए

आसेब थे जितने

और जंगल से गुज़रते हुए रहगीरों ने गर्दन में उतरते

हुए दाँतों से सुना था

पार जाना है तो पीने को लहू देना पड़ेगा

चाँद क्यूँ अब्र की उस मैली सी गठरी में छुपा था

ख़ून से लुथड़ी हुई रात के रहगीरों ने दो ज़ानू प गिर कर,

''रौशनी, रौशनी''! चिल्लाया था, देखा था फ़लक की जानिब,

चाँद ने गठरी से एक हाथ निकाला था, दिखाया था चमकता हुआ ख़ंजर

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