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बोसकी - गुलज़ार कविता - Darsaal

बोसकी

वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा

न उतरते हुए देखा कभी इल्हाम की सूरत

जम्अ होते हुए इक जगह मगर देखा है

शायद आया था वो ख़्वाबों से दबे पाँव ही

और जब आया ख़यालों को भी एहसास न था

आँख का रंग तुलू'अ होते हुए देखा जिस दिन

मैं ने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था

चंद तुतलाए हुए बोलों में आहट भी सुनी

दूध का दाँत गिरा था तो वहाँ भी देखा

बोसकी बेटी मिरी चिकनी सी रेशम की डली

लिपटी-लिपटाई हुई रेशमी तांगों में पड़ी थी

मुझ को एहसास नहीं था कि वहाँ वक़्त पड़ा है

पालना खोल के जब मैं ने उतारा था उसे बिस्तर पर

लोरी के बोलों से इक बार छुआ था उस को

बढ़ते नाख़ूनों में हर बार तराशा भी था

चूड़ियाँ चढ़ती उतरती थीं कलाई पे मुसलसल

और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थीं किताबें

मुझ को मालूम नहीं था कि वहाँ वक़्त लिखा है

वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा

जम'अ होते हुए देखा मगर उस को मैं ने

इस बरस बोसकी अठारह बरस की होगी

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