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खुली किताब के सफ़्हे उलटते रहते हैं - गुलज़ार कविता - Darsaal

खुली किताब के सफ़्हे उलटते रहते हैं

खुली किताब के सफ़्हे उलटते रहते हैं

हवा चले न चले दिन पलटते रहते हैं

बस एक वहशत-ए-मंज़िल है और कुछ भी नहीं

कि चंद सीढ़ियाँ चढ़ते उतरते रहते हैं

मुझे तो रोज़ कसौटी पे दर्द कसता है

कि जाँ से जिस्म के बख़िये उधड़ते रहते हैं

कभी रुका नहीं कोई मक़ाम-ए-सहरा में

कि टीले पाँव-तले से सरकते रहते हैं

ये रोटियाँ हैं ये सिक्के हैं और दाएरे हैं

ये एक दूजे को दिन भर पकड़ते रहते हैं

भरे हैं रात के रेज़े कुछ ऐसे आँखों में

उजाला हो तो हम आँखें झपकते रहते हैं

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