तारे हमारी ख़ाक में बिखरे पड़े रहे
तारे हमारी ख़ाक में बिखरे पड़े रहे
ये क्या कि तेरे नैन फ़लक से लड़े रहे
हम थे सफ़र-नसीब सो मंज़िल से जा मिले
जो संग-ए-मील थे वो ज़मीं में गड़े रहे
लोगों ने ईंट ईंट पर क़ब्ज़ा जमा लिया
हम दम-ब-ख़ुद मकान से बाहर खड़े रहे
हम को तो झूलना ही था इंसाफ़ के लिए
ये कील क्यूँ सलीब में नाहक़ जड़े रहे
रानाई अपनी छीनता है मौसमों से अब
माज़ी में जिस दरख़्त के पत्ते झड़े रहे
जिन की जड़ें ज़मीन के अंदर थीं दूर तक
वो पेड़ आँखियों के मुक़ाबिल अड़े रहे
(785) Peoples Rate This